आईए मन की गति से उमड़त-घुमड़ते विचारों के दांव-पेंचों की इस नई दुनिया मे आपका स्वागत है-कृपया टिप्पणी करना ना भुलें-आपकी टिप्पणी से हमारा उत्साह बढता है

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

गए रहंव मैं छुट्टी मा लउटे हौं अभीच्चे

छब्बीस ले लेके अभी तक 
रेलगाड़ी के धक्का खाएन 
खोलेन घर के दुआरी, लागिस 
लउट के बुद्धू घर आयेन
कहाँ गे हमर चैत के अंजोरी के परवां

एला कैसे हमन भुलाएन 
अब्बड नाचत कूदत भैया 
१ जनवरी के नवा साल मनायेन
खैर, जनता के मांग 
फेर जम्मो झन ल दू हज़ार दस के 
गाडा भर बधाई अउ जय जोहार

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

आप सभी को नव वर्ष की अग्रिम बधाई

नव वर्ष सबके लिए सुखमय, समृद्धि व वैभव शाली हो, आओ करें प्रार्थना 
उन श्लोकों को, दुहरायें सबके लिए दुआ मांगे समूचे विश्व के लिए 

(१) सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया
     सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद् दुःखभाग्भवेत..


(२) सर्वेषाम स्वतिरभवतु
      सर्वेषाम  शान्तिर्भवतु       
      सर्वेषाम पूर्णं भवतु 
      सर्वेषाम मंगलम भवतु 
      लोकासमस्ता सुखिनो भवन्तु 

और आजकल सर्वमान्य "HAPPY NEW YEAR" 2010


 

समाचार पत्र वाचन (पठन)


भले ही आज दौड़ भाग की जिन्दगी है. विश्व में,  हमारे देश में, राज्य में,  हमारे आस पास क्या हो रहा है क्या होने वाला है खेल कूद की क्या गतिविधियाँ हैं इन सभी चीजों से अवगत होने को प्रत्येक व्यक्ति आतुर रहता है. जानकारी प्राप्त करने के प्रमुख स्रोत तीन तरह के हैं:- (१) समाचार वाचन(समाचार पत्रों द्वारा)  (२) श्रवण (रेडियो समाचार) व (३) दर्शन व श्रवण दोनों (दूर-दर्शन चेनलों द्वारा).  क्या गाँव क्या शहर जहाँ पढ़े  लिखे लोग हैं उनमे सोकर उठते ही (यदि नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ तो अच्छी बात है) समाचार पत्र वाचन की आदत बन चुकी है. यदि सात बजे तक यदि घर में समाचार पत्र नहीं आया तो बेचैनी लगने लगती है. मैं भी इसका आदी हो चुका हूँ. मैं काफी लम्बे समय से समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" का नियमित पाठक हूँ. मुख्य पृष्ठ पर तो सिर्फ शीर्षक ही पढता हूँ. अन्दर के पृष्ठों पर एक नजर डालता हूँ और जहाँ आँखे टिक जाती है उसे पूरी तरह पढता हूँ. खेल समाचार भी. अधिकाँश समाचार "हत्या, "लूट पाट"  "दुर्घटनाओं" और नेताओं द्वारा एक दूसरे पर छींटा कशी से भरा होता है. मेरी सबसे अधिक पसंद का पृष्ठ होता है; "जीवन दर्शन" और "जीने की राह" वाला पृष्ठ. इस शीर्षक के अंतर्गत लिखी बातें जरूर पढता हूँ.  अभी कुछ दिनों से "मैनेजमेंट फंडा" के अंतर्गत नियमित रूप से आर्टिकल लिखा जा रहा है. आज मैंने इसमें  लिखी बातों को भी नज़रअंदाज नहीं किया. इन दोनों शीर्षकों के अंतर्गत छपे हुए सारांश या कहूं हाई लाईट की हुई कुछ लकीरें यहाँ उद्धृत करने का मन हो गया सबके लिए अनुकरणीय समझ कर लिख रहा हूँ;
पढ़ाई को उबाऊ नहीं दिलचस्प बनाएं :- हमें अपने बच्चों को किताबी कीड़ा बनने से बचाने की जरूरत है. आखिर कोई भी विषय सिर्फ अंक हासिल करने के लिए नहीं पढ़ाया जाता. हर विषय हमारे जीवन से कहीं न कहीं जुडा  है जुडाव के बारे में उन्हें समझाना होगा. ( मैनेजमेंट फंडा के अंतर्गत श्री एन रघुरामन जी का आर्टिकल)
 जीवन दर्शन :- (द्वारा पंडित विजयशंकर मेहता ) (१) जब भगवान् ने प्रसाद लेने से किया इंकार: जंगल से लौटते वक़्त एक गाड़ीवान की गाड़ी का पहिया कीचड में फँस गया. तब उसने भगवान् को याद किया. याद इस प्रकार किया कि आर्तनाद करने लगा कहने लगा हे भगवान् मेरी सहायता करो, बस यह गाडी कीचड से बाहर  निकाल दो मैं तुम्हे प्रसाद चढाऊंगा. देवता ने गाड़ीवान कि पुकार सुन ली. वे तत्काल उसके सामने आकर बोले -- क्या चाहते हो बोलो . गाड़ीवान वही बातें दोहराई कि भगवान् मेरी सहायता करो, बस यह गाडी कीचड से बाहर  निकाल दो मैं तुम्हे प्रसाद चढाऊंगा. देवता हंसकर बोले - बैलों को क्यों मार रहे हो? अरे भाई तुम भी पहिये पर जोर लगाओ और बैलों को भी ललकारो, फिर देखो गाडी कीचड से बाहर निकलती है या नहीं? यह सुनते ही गाड़ीवान ने पहिये पर जोर लगाया और बैलों को भी ललकारा तो गाड़ी बाहर आ गई. गाड़ीवान खुश होकर बोला भगवान् आपने मेरी गाड़ी कीचड से  निकाल दी, बस अभी आपको प्रसाद चढ़ाता हूँ. तब देवता ने कहा- मुझे प्रसाद की आवश्यकता नहीं है भाई, मैंने तुम्हारी गाड़ी नहीं  निकाली    तुमने स्वयं यह कार्य किया है. ऐसे व्यक्ति पर मैं प्रसन्ना रहता हूँ और उसकी सहायता करता हूँ. किन्तु जो व्यक्ति दूसरों का मुंह ताकता है वह अपना काम तो बिगाड़ता ही है मेरी  कृपा भी नहीं पाता. 
 यह पढ़ते ही ध्यान आया "हिम्मते मर्द मदद दे खुदा"
 जीने की राह (पंडित विजयशंकर मेहता द्वारा) :- महापुरुष बाहर से अलग पर भीतर से एक जैसे :- "महापुरुष दरअसल एक उर्जा हैं, जो करुना के कारण किसी के भी भीतर जन्म ले लेती है. इसीलिए ध्यान रखें कि जब हमारे भीतर जब ऐसी उर्जा आये या उसका जन्म हो तो हम सावधान रहें और उसे पकड़ लें" 
ऐसे रोज कई शिक्षाप्रद  बातें लिखी होती हैं. कम से कम पढ़ते समय तो लगता है कि इनका अनुपालन किया जाय. केवल पढ़ते समय ही नहीं यदि किसी समय हम बुरे फंसे होते हैं या कोई गलत कर बैठते हैं तो ये बातें जरूर एक बार कान में सुनाई  पड़ती हैं भले हम उसे माने या न माने. परिणाम भी तदनुसार देखने को मिलता है. 
अरे हाँ इस पृष्ठ पर पत्रकार महोदय श्री प्रीतिश नंदी जी द्वारा "प्रोद्योगिकी के गुलाम" शीर्षक के अंतर्गत लिखी बातें भी पढ़ा. उनके द्वारा लिखा गया है...."मैं शर्मिंदा हूँ कि मुझे अपने पिता की पुण्य तिथि को याद रखने के लिए मोबाइल फ़ोन पर अलार्म लगाना पड़ता है या फिर अपनी शादी की सालगिरह से दो दिन पहले कोई वेबसाइट याद दिलाएगी कि पत्नी को फूल भेजने हैं. खत्म होते इस साल पर स्वयं से एक वादा कर रहा हूँ कि मैं टेक्नोलोजी को अपना गुलाम बनाऊंगा न कि अपने जीवन को टेक्नोलोजी का गुलाम बनने दूंगा".  इस पर टिपण्णी चाहूँगा ........ शुभ रात्रि 

 

 




गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

सर्व धर्म समभाव की धारणा के साथ 
सभी को मैरी क्रिसमस 

ख़तम होईस चुनाव तिहार .... जय गंग


सब सूतथें त मोर बर बिहिनिया होथे. आनी बानी के गोठ हा दुनो दिमाग माँ घुमड़ थे. हमर देश हा तिहार के देश कहाथे. जम्मो धरम के तिहार बार मानथें. वैसे हमर सनातन धर्म माँ तिहार के कमी नई आय. फेर ये सब तिहार ले ऊपर उठके भाई हो सबले बड़े तिहार "चुनाव" के होथे.  अभी झार खंड माँ चुनाव होईस. मध्यप्रदेश  माँ होईस अउ छत्तीसगढ़ माँ स्थानीय निकाय मन के चुनाव आजे ख़तम होईस. लेकिन चुनाव घोषणा होए के बाद के ओ प्रदेश के , ओ शहर के का हालत रथे ओला मोर मुंगेरीलाल के दिमाग माँ एक अलग किसम ले बरनन करे के बिचार उमडीस. मोला सुरता आथे जब मैं पहिली दूसरी माँ पढ़त रेहेंव त बिहिनिया बिहिनिया ले चन्दन चोवा लगाए बसदेव मन हाथ माँ रिंग बरोबर झुनझुना ला हलावत अउ अइसने  गावत "एही रे बेटा सरवन आय...... जय गंग घर दुआरी मा  मांगे बर आवै. सोचथौं के आज चुनाव मा खड़े जन प्रतिनिधि मन दुआरी मा खड़े हे, बसदेव  के जघा मा अउ शुरू होगे हे ....  
आवौं मैं फलाना  पार्टी के उम्मीदवार 
मिलही वोट मोहिच ला तोर 
उम्मीद ले के   
आये हौं तोर द्वार .........जय गंग 
बने जाड परत हे बेटा, कम्बल देहों 
कुकरी देहों सोम रस के भरे भण्डार .... जय गंग 
अतका कही के रेंग दिस 
दूसर दिन हमर एक बाबाजी आइस 
ओहू चालू होगे 
कखरो बात मा तै झन आबे या
गाँव के एक झन मनखे हा

दारू के चक्कर मा अपन मेहरिया के
हाथ पाँव काट के कर दिस ओ बिचारी 
के बेडा पार ........ जय गंग
का जमाना आ गे हे सोचे ला परही
कब तक चलही अइसने











बुधवार, 23 दिसंबर 2009

सुन,, कौआ कान को ले गया, भागे कौए के पीछे हुआ कनपट्टी में दर्द, कहे कान कौन है खीचे

यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि हम यदि अपने परम विश्वसनीय मित्र से, उस व्यक्ति के बारे में जिसे हम जानते तो हैं पर वह हमारा घनिष्ठ नहीं है, कहीं उसकी बुराइयां या कहें निंदा सुन लें तो हम बिना किसी सबूत  के, बिना परखे सहज ही उसे त्याज्य मान लेते हैं. उसे देखना भी पसंद नहीं करते. दूसरे शब्दों में कहें उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते हैं. यह तो मित्र की बात हुई. घर में भी हम किसी के प्रति उसके रहन सहन से,  उसके व्यवहार से  खिन्न हैं अथवा वह घर में बोझ लग रहा हो तो हम अपनी मित्र मंडली में उसके बारे में जितने भी नकारात्मक टिप्पणियां करनी होती है कर देते हैं. हमारी मित्र मंडली भी बिना उसके संग रहे उसके व्यवहार को परखे पूर्वाग्रह से ग्रसित हो उसे हेय  दृष्टि से देख उससे दूर ही रहना चाहती है. किन्तु प्रभु की लीला भी कम नहीं, कभी कभी ऐसी परिस्थिति पैदा कर देता है कि आज जिस व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जा रहा था वही व्यक्ति हेय दृष्टि से देखने वाले के लिए भगवान् बन जाता है.  बुरे समय से उबार लेता है और ऐसे ही समय में उसे लगता है कि उसके कान को कोई खीच रहा है  और कह रहा है कि बेवजह उस व्यक्ति के प्रति गन्दी सोच क्यों रख रहा था, मात्र अपने घनिष्ठ मित्र से उसकी बुराई सुन. कभी कभी व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की बीमारी का शिकार स्वामी भक्ति अथवा कहें किसी से प्रगाढ़ प्रेम हो जाने के कारण हो जाता है. हम तो साधारण मनुष्य हैं. भगवान् भी इससे अछूते नहीं रहे. श्री  राम चरित मानस का यह प्रसंग इस बात को साबित करता है --- भगवान श्री राम चन्द्र जी के वनगमन का समाचार सुन भैया भरत और शत्रुघ्न का रानियों सहित,  भगवान् श्री राम चन्द्र जी को   वापस अयोध्या ले जाने के लिए चित्रकूट जाना . श्रिंग्वेरपुर के समीप पहुंचना. निषादराज के मन में विचार उत्पन्न होना कि भरत जी सेना सहित इसलिए आये हैं कि श्री राम चन्द्र जी को मारकर निष्कंटक राज करना चाहते हैं. इतना ही नहीं निषाद राज के द्वारा अपनी जाती के लोगों से भरत जी से यद्ध के लिए तैयार हो जाने के लिए कहना. ढोल बजाकर केवल ललकारने की देरी थी तभी किसी का छींक देना और एक बूढ़े के द्वारा शकुन विचार कर भरत जी से मिलने की सलाह देना और यह विश्वास दिलाना कि भरत जी से लड़ाई नहीं होगी.  इतना होते तक निषाद राज का जोश ठंडा पड़ना और यह सलाह देना कि "जल्दी में काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं"  हमारी छत्तीसगढ़ी में भी कहावत है "जल्दी म लद्दी, धीर म खीर" . परिणाम भरत निषाद राज का मिलन और निषाद राज का पछतावा. (अयोध्या कांड  दोहा क्रमांक १८६ से लेकर १९६ तक वैसे तो और आगे तक भी). बात यहीं समाप्त नहीं होती.  लक्ष्मण जी भी इस विचार से अछूते नहीं रहते. उन्हें भी भाई भरत का इस प्रकार रथारूढ़ होकर सैन्य  शक्ति के साथ आना नागवार गुजरता है.  यही धारणा मन में बनती है कि भैया भरत के आने का कारण प्रभु श्रीरामचंद्र जी को मारकर निष्कंटक अयोध्या का राज करना है जैसा कि भरतजी ने प्रभु जी को असहाय समझ इसी  अवसर को उपयुक्त चुना.  कहने का तात्पर्य है कि इस तरह कि चीजें स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होती हैं. ऐसी अवस्था में हमे "जोश में होश"  न त्याग कर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए. कौए कि ओर देखने के बजाय भैया अपने कान ही पकड़ कर देखें कि है कि नहीं..........    सियावर रामचंद्र की जय.. अरे हाँ एक चौपाई को उद्धृत करना चाहूँगा... "चले निषाद जोहारि जोहारी. सूर सकल रन रुचइ रारी.. सुमिरि राम पद पंकज पनही.  भाथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं..  इस चौपाई में "जोहारि" और "पनही" का उल्लेख हुआ है. इन्हें हम अपनी छत्तीसगढ़ी बोली में भी प्रयोग क्रमशः अभिवादन(जोहारि) व जूते(पनही)  के लिए करते हैं.
जय जोहार .......

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

ब्लॉग जोर अजमाइए रहके अपने ठौर

आज ब्लॉग जगत ने लोगों में छिपी प्रतिभाओं को उभारने का एक अच्छा  सुनहरा अवसर प्रदान किया है . अतएव कहने की बात नहीं है,हम इसके माध्यम से अपने विचार सहज व सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. हलकी  फुलकी  मनोरंजक सामग्रियां भी इसमें रखी जा सकती हैं जिसमे हास्य का पुट हो. हमें यदि अपने ब्लॉग जगत में अपना परचम लहराना है तो हमें अपने ठौर को  (तात्पर्य अपने ब्लॉग को ही) अच्छे विचारों वाली सर्व मान्य रचनाओं  से, हंसी के फव्वारों से, और भी जैसा बन पड़े,  (ध्यान रहे कि किसी व्यक्ति विशेष  की भावनाओं को ठेस न पहुंचे) अपनी लेखनी द्वारा और भी सुसज्जित कर लहरा सकते हैं. साथ ही साथ अपने ब्लॉग मित्रों का टिपण्णी के माध्यम से हौसला आफजाई करते हुए. किसी की रचना पढ़कर रचनाकार को ठेस पहुचे ऐसी चीजें टिपण्णी में न लिखी  जाय.  आज  भाई ललित की  रचना "इस बीमारी की कोई दवा हो तो बताएं" के सम्बन्ध में एक टिपण्णी पढने को मिली "आपने  अपना इलाज कहाँ करवाया है" अब इसके बारे में जनता की राय अपेक्षित है.  मैंने तो अपनी राय ऊपर लिख ही दिया है.

रविवार, 20 दिसंबर 2009

नवा साल आये बर बांचे हे दिन दस





नवा साल आये बर बांचे हे दिन दस 
अरे, आवत  हे जौन साल ओ हर आय सन दू हजार दस
पुन्नी के चंदा हा  ओखर स्वागत बर बने  खड़े रइही
 रौशनी बिखेर के  इहाँ हमन ला इही बात कइही
नई होवे ये साल, कोनो के घर  अंधियार
नाच गा के तहूँ अपन ख़ुशी मना ले यार 
फेर थोड केच  देरी माँ चंदा ला धर लेही  गरहन 
संसो माँ डार देहि मनखे मन ला के का होही अलहन 
अलहन के कमी नई ये;
आतंकी, नक्सली रोज खेलत हे खून के होली 
का वर्दी का बिन वर्दी वाले,गंवावत हे अपन परान 
कहूँ बारूदी सुरंग माँ फंसके, कहूँ खा के बन्दुक के गोली 
कुदरत के उपहार घलो हम सहेज के नई रख पावत हन
होवत हे गरम धरती महतारी एला जघा जघा गोहरावत हन 
आवौ कर लन आजे परतिग्या
ये खून के बोहैया मन ला सोझियाबो 
हथियार फेंके बर इनला जोजियाबो 
धरती मा  फेर हरियाली लाबो, 
नवा साल के स्वागत संगी,  अइसने करबो बस 
आवत हे नवा साल तौन हा आय सन  दू हजार दस 
जम्मो संगी संगवारी ला उंखर ऊपर एको ठन अलहन झन आवै 
बने ख़ुशी ख़ुशी बीते हर साल  एही शुभकामना के साथ जय जोहार
















यात्री की यात्रा अभी जारी है..

सभी को मेरा पुनः नमस्कार !!
वास्तव में अभी कुछ दिनों से मेरी दैनिक यात्रा रेल से सुचारु रूप से नहीं हो पा रही है. वजह कभी कभी बॉस की कार से जाना हो जाता है. अब बॉस के साथ कार से जाने में भी नित नयी चीजें देखने को, अनुभव करने को मिलती हैं.  पहली बात तो यदि आप अकेले अपने वहन से जा रहे हों तो भी मन कुछ न कुछ सोचते रहता है यद्यपि आपका सारा ध्यान रास्ते में अपने वाहन चालन पर रहता है पर मन तो है, इसकी गति की तुलना हवा से की गयी है, स्थिर थोड़े ही रहने वाला है.  हम और बॉस जब जा रहे होते हैं तो काफी देर तक चुप रहते हैं तो शायद उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता. कार वही ड्राइव  कर रहे होते हैं. वही कुछ टॉपिक निकालकर बात शुरू करते हैं फिर बीच बीच में हम भी उनकी बातों पर अपनी हाँ की मुहर लगा देते हैं या अपनी भी छोटी सी आप बीती सुना देते हैं.  मुझे यात्रा के दौरान जो बात पिंच हुई वह यह कि हम जब कभी वाहन चलन करते हैं तो कैसे भी चलायें, हम अपने आप को एक अच्छा ड्राईवर मानते हैं.  चाहे हम किसी भी प्रकार से ओवर टेक कर लें जायज है.  पर यदि कोई दूसरा वही चीज करने लगता है तो मुह से सीधे गाली निकल जाती है. वास्तव में हुआ ये था कि शिवनाथ नदी कि छोटी पुलिया में दोनों तरफ से गाड़ियाँ (दुर्ग जानेवाली और राजनंदगांव जाने वाली) पुलिया में घुस आयी थीं.  एक तरफ  की  गाड़ियों को पीछे करना पड़ा था लेकिन दुपहिया वाले कैसे भी घुस कर निकल जा रहे थे इससे हमारी गाड़ी को निकलने में लेट हो रहा था. बॉस को जल्दी जाना था इसलिए उनके मुह से उन दुपहिया वाहन वालों के लिए कुछ विशेषण युक्त शब्द निकलने लगे.  मैंने मन ही मन सोचा हम भी जब मोटर साइकिल चलाते रहते हैं तब उस परिस्थिति में शोर्ट कट ही सोचते हैं और निकलने का प्रयास करते हैं तो उस समय भी हमारे लिए भी लोग यही सोचते होंगे.  होता है अपने को अच्छा लगे वह सब जायज है. और आजकल सभी व्यस्त हैं चाहे काम से हो या " बीजी विदाउट वर्क" हैं. सबको कुल मिलाकर जल्दी है भाई... अब जादा नहीं लिख पाऊंगा मुझे भी जल्दी है ............

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

दूर (जहाँ से अप डाउन किया जा सके ), पदस्थ नौकरी पेशा लोगों की दैनिक यात्रा

नमस्कार जी!
मैं भाई सोचा कोई मेरी सुनेगा कुछ ट्यूशन पढ़ा देगा. ब्लॉग सजाने के लिए. और क्या क्या तकनीकियाँ हैं जिसे प्रयोग करके तरह तरह के ब्लॉग बनाए जाते हैं यह बताने के लिए. ऐसा सोच एक फिर ब्लॉग खोल लिया केवल यात्रा की यादें पोस्ट करने के लिए. .... ठीक है इसी में चलने देता हूँ... आज वह दिन याद आ रहा है जब हम भिलाई से कुम्हारी उसी वाल्टियर ट्रेन से जा रहे थे. पॉवर हाउस से ही १५ मिनट लेट निकली थी.  अब चरोदा स्टेशन के  एच केबिन में खड़ी हो गयी. काफी देर तक हिलने डुलने का नाम नहीं. उस दिन हमको रेलवे के कुछ सांकेतिक शब्द के बारे में पता चला. बात दरअसल ये हुई की हम यात्रीगण अब आपे से बाहर होने लगे थे. पहुँच गए केबिन के अन्दर. वहां बैठे एक महाशय से पूछने पर सही स्थिति बताने के बजाय शायद "नियंत्रक" से संपर्क में लगे  थे  या कोई और केबिन में संपर्क कर रहे थे. कह रहे थे "अलहाबाद " कभी  "कलकत्ता" कभी "बॉम्बे". हममे से  एक से रहा नहीं गया. वे बोलने लगे बात तो अलहाबाद, कलकत्ता, बॉम्बे की हो रही है और इनका काम देखो तो रायपुर के मौदहापारा से गया बीता है. हुआ ये था कि चरोदा के बाद बीच बीच में केबिन बने हुए हैं "ए" "बी" "सी" से लेकर 
शायद "एच" आखरी केबिन हो उनसे लाइन क्लियर होने की जानकारी ली जा रही थी और प्रत्येक  कबिन के नाम के  लिए उन शहरों के नाम लिए जा रहे थे .  "मौदहापारा" सुन सबका आक्रोश हंसी के माहौल में बदल गया... उस दिन पहुंचे तो आखिर देरी से ही.... फिर भी मजे लेते हुए.... 

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

दूर (जहाँ से अप डाउन किया जा सके ), पदस्थ नौकरी पेशा लोगों की दैनिक यात्रा



सभी ब्लॉगर भाइयों को एक बार फिर जय जोहार.  नौकरी पेशा लोगों की  जिन्दगी से तो सभी वाकिफ हैं. यदि कहीं अप डाउन करने वाले हों तो जिन्दगी मशीन की भांति हो जाती है. पर हाँ उसमे भी दैनिक यात्री अपने अपने समूह के साथ एन्जॉय करने से नहीं चूकते.  मुझे भी, चूंकि पत्नी भी बैंक में सेवारत है, विभाग प्रमुख द्वारा ज्यादा दूर नहीं भेजा जाता. नौकरी के २६ वर्ष पूरे होने वाले हैं. इसमें फिफ्टी परसेंट तो उप डाउन में निकला है. एक से एक घटनाएं हुई. उसी की आज याद आ रही है. खासकर आज मैं राजनंदगांव से रात के ८ बजे की तारसा लोकल से दुर्ग वापस आ रहा था तो खाद्य अधिकारी, ग्रामीण बैंक में पदस्थ अधिकारी, सभी साथ में थे. आप बीती सुना रहे थे. तो आज उनकी आप बीती ही यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा. खाद्य अधिकारी महोदय का कार्यालय कलेक्ट्रेट में है जहाँ और भी कार्यालय पाए जाते हैं. बात ही बात में कहने लगे के दिन में तो वे दुनिया भर के झमेलों में पड़े रहते हैं. कार्यालयीन कार्य तो शाम पांच बजे शुरू होता है. दिन के झमेलों की शुरुआत उन्होंने विभाग देख "मांगीलाल" बन माँगनेवाले  लोगों के बारे में कहना शुरू किया. "मांगीलाल" की श्रेणी में सर्वप्रथम ब्लैक मेल करने वाले तथाकथित पत्रकारों  का जिक्र हुआ. ये ज्यादातर त्योहारों में कार्यालयों के चक्कर लगाते हैं और बमुश्किल १००-५० कोई समाचार पत्र छपवाते हैं.  दूसरे नंबर पर रहे मांगते समय दीन हीन बनकर कार्यालय में घुस जाने वाले. यदि बात नहीं बनी तो तमाम असंसदीय भाषा का प्रयोग करने लगना इनकी फितरत में है. पर ऐसे लोगों से निजात पाने वालों की भी कमी नहीं है. क्या हुआ एक बार एक व्यक्ति अपने आपको एकदम परेशानी में होने का नाटक करते हुए ट्रेन में ही सभी यात्रियों से सहयोग की गुहार करने लगा. अपने किसी सम्बन्धी की मृत्यु की बात बताकर.  ट्रेन में बैठे सज्जनों में से एक ने उस व्यक्ति से सहानुभूति जताते हुए (भांप तो लिए थे मांगने वाले की मंशा को) कहा कि यदि ऐसी बात है तो उस मृत व्यक्ति के संस्कारों में होने वाले सभी खर्चे वह वहन करेगा. ऐसा सुनते ही वह परेशान व्यक्ति वहां से खिसक गया.  कहने का तात्पर्य यह है कि आज क्या क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं मुफ्त का पैसा पाने के चक्कर में. यह तो हुई "मांगीलाल" वाली बात. अब जरा चर्चा करें कि आप ऑफिस से छूटने के बाद स्टेशन में खड़े हैं. पहले गाड़ी के  राईट टाइम चलने की सूचना दी जा रही है और कुछ ही समय पश्चात् १५ मिनट लेट चलने का अन्नौंसमेंट होने लगता है. कारण पहले माल गाड़ी निकालना होता है. यह रेलवे की लक्ष्मी है. कैसा लगता है. खीज होती है ना ?  पर इसमें भी दैनिक यात्रियों का एन्जॉय करना नहीं छूटता.  एक बार की बात है हम उस समय रायपुर से भिलाई पॉवर हाउस   ड्यूटी में आया करते थे. उस समय आज की तरह ट्रेन सुविधा नहीं थी शाम ६ बजे एक ही ट्रेन का इन्तेजार रहता था. वह ट्रेन थी वाल्तेरु.  प्रायः यह ट्रेन विलम्ब से चलती थी. पहले मालगाड़ी क्रोस कराया जाता था.  और पूछने पर भारी भरकम शरीर वाला स्टेशन मास्टर पतली आवाज में कुछ यूँ  कहता "गोडी के इंजिन में ट्रबल है.  पर जब हम राजनंदगांव से आज से दस साल पहले अप डाउन करते थे तब वहां का एक स्टेशन मास्टर जिनका नाम "माताभीख" था ईमानदारी से गाड़ी की सही स्थिति बता दिया करते थे. यहाँ तक कह देते थे की आज बस से चले जाइए. ऐसे कई अनुभव है एक साथ बखान नहीं किया जा सकता. शेष फिर ....... शुभ रात्रि व जय जोहार के साथ (जय जोहार नहीं छूटेगा, "जोहार" शब्द का प्रयोग तो रामायण में भी हुआ है.)

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

ब्लागरों का सीरियल ब्लास्ट

ऊपर लिखे शीर्षक के अंतर्गत विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं. मैं भी सोचा कुछ अपने विचार भी क्यों  ना  रखूँ . अंतरजाल की महिमा बड़ी अद्भुत है. दूर सुदूर बैठे लोगों से भी मेल-जोल का अवसर प्रदान करता है बशर्ते अपन इसे सकारात्मक ढंग से बढ़ाते चलें.  बहुत ही बढ़िया माध्यम है अपनी छिपी प्रतिभा को उभारने का और यदि इस विधा में पारंगत लोगों का आशीर्वाद मिल जाए और सहयोग भी तो बात ही क्या है. अभी मीडिया जिसमे समाचार पत्र भी शामिल है; वैश्विक जलवायु परिवर्तन जिसे ग्लोबल वार्मिंग कहा गया है जादा तवज्जो दे रहा है, देना भी चाहिए. इस सन्दर्भ में हम सभी ब्लागरों को भी अपने अपने सुझाव प्रस्तुत करने चाहिए.  केवल सुझाव देने से काम नहीं चलेगा उस पर अमल करने के लिए भी जनता को प्रेरित करना होगा.  मसलन आज बढती औद्योगिक इकाइयां  केवल धनोपार्जन को प्राथमिकता देते हुए सुरक्षा व स्वास्थ्य के प्रति जरा लापरवाह नजर आती हैं. इसके लिए जनता को ही लड़ना होगा.  इसके लिए प्रदूषण नियंत्रक यंत्र  प्रत्येक कारखानों में लगाये जाने की अनिवार्यता तो शासन सुनिश्चित करती है पर क्या सभी इसका अनुपालन करते हैं. इसी प्रकार से पर्यावरण की हालत की तो बात ही न करें. जगह जगह जंगल की कटाई. वजह आज बड़ी बड़ी कॉलोनियां बनानी हैं.जादा से जादा उद्योग धंधे स्थापित किये जाने हैं. भाई रोजगार उपलब्धता की दृष्टि से तो ठीक है साथ ही इसके कुप्रभावों पर भी ध्यान देते हुए आवश्यक कदम उठाने होंगे. वैसे तो मैं प्रायः अपनी क्षेत्रीय बोली में लिखते रहता हूँ. आज सोचा थोडा हट के लिखा जाए. मुझे प्रेरणा प्रदान करने वाले सर्व श्री ललित तिवारीजी, संजीव भाई, शरद कोकस भाई साहब, पाबला जी, राजकुमार जी, अईयर साहब,  समस्त ब्लॉगर बंधुओं का हार्दिक आभारी हूँ और सबसे बड़ी बात दिनांक ०६.१२.२००९ को खबर पाते ही ब्लॉगर श्री अनिल पुसदकर जी का मीटिंग में शरीक होने समय निकालकर पहुंचना  इस मीटिंग को यादगार बना गया. सधन्यवाद! व जय जोहार के साथ

रविवार, 6 दिसंबर 2009

ब्लॉग के आग के लपट

ब्लॉग के आग के लपट कहाँ कहाँ  फैले हे
तेला आज जानेव ब्लॉग- संगवारी संग मिलके
धन्य हो ब्लॉगर भाई हो अभी तक ब्लॉग में
लिखाई होत रहिस, बने लागिस आज संग
माँ खाएन मेछराएन गोठियाएन हिल मिलके
फेर एक ठन बात ला कैहूँ, झन पियो खाव अतेक जादा
के नौबत आवै उछरे के, हिम्मत नई होवे ककरो घर माँ घुसरे के

भाई ललित, शरद, पाबला जी, अइयर साहेब  संजीव, राजकुमारजी,
अउ सबले जादा भाई अनिल पुसदकर जी सबो झन ला मोर नमसकार

अइसने जुड़े रहन बने रहै सबके प्यार.


शनिवार, 5 दिसंबर 2009

ठल्हा बनिया हलावे कनिहा

सर्वप्रथम परमपूज्य स्वामी १०००००००००१०८ स्वामी श्री निठल्लानंद जी को मेरा शाष्टांग प्रणाम !
गुरुदेव जादा तो नहीं पर अभी वर्त्तमान में मुंबई में चल रही क्रीडा "लम्ब दंड गोल पिंड दे दनादन ले दनादन" के बारे में चंद पोस्ट करने कहा अतः आपकी आज्ञानुसार दो शब्द लिख दे रहा हूँ.  यह क्रीडा आपकी तरह आपके शिष्य जो शीर्षक में दर्शित विशेषता लिए हुए है, उसको भी बहुत पसंद है.  वास्तव में ठल्हा तो नहीं रहता पर केवल घुटने में ही काम के बारे में सोचते रहता है और दुविधा में रहते हुए साथ ही "आज करै सो काल कर काल करै सो परसों. इतनी जल्दी क्या है प्यारे जीना है अभी बरसो" वाली
कहावत चरितार्थ करते हुए इस क्रीडा के दर्शन करने में लग जाता है. अभी घुटना भी निठल्ला हो गया है. ज्यादा कुछ सूझ नहीं रहा है. प्रभु आप ही मार्ग दर्शन करें. आगे जारी रहेगा संवाद..... अभी चचेरे भाई के यहाँ विवाह कार्यक्रम में सम्मिलित होने जाना है. और हाँ कल तो दर्शन हो ही रहे हैं  ना आपके.

रविवार, 29 नवंबर 2009

बिहाव के न्यौता खाव

महराज मन  के गणित ला देखौ, 
कतेक कम मुहूरत हे ये दारी 
करे बर बर बिहाव 
देख के न्यौतन के कारड ला 
पर जाथे सोचे बर भाई हो

काखर घर भेजौं रीत 
काखर घर खुदे जाँव 

जाके देख थन बिहाव घर माँ 
बिपतियाये घराती अपन काम बूता माँ 
हाय हेलो भर  कर लेथे, 
कहूँ बन के बाराती तैं गे हस त 
नचई  कुदई पेर देथे



मिल गे मंडली त बने लागथे 
नई तो हो जाथस तय बोर 
रीत दे के भागे के मन करथे
फेर बिन खाके जाय माँ लागथे
अन्याय हो जाही घोर 
काबर के 
किसिम किसिम के जिनिस बने हे 
जेला कथें आजकल बफेलो (बफे) 
फेर काहे  चूकौ संगवारी 
झन छोडो एको आइटम ला 
एक  एक करके गफेलो 
लेकिन ध्यान रहै
पेट तुंहर आय कोटना नो है 
सम्हल सम्हल के खाव
नई समझहू त हम का करबो 
दिखही रस्ता सुभीता खोली के 
उहाँ  हउरा फेट लगाव



ये दारी = इस समय 
बर बिहाव = शादी ब्याह 
खुदे = स्वयं 
न्यौतन कारड = निमंत्रण पत्र 
काखर घर = किसके घर 
रीत = उपहार 
बिपतियाये = व्यस्त 
काम बूता = काम में 
जिनिस = चीजें, व्यंजन 
गफेलो= खाओ, पेट में ले जाओ 
कोटना= मवेशी को चारा खिलाने का पत्थर का बना टब नुमा 
              चीज

हम का करबो = हम क्या करेंगे 
सुभीता खोली = जहाँ रोज सुबह जाया जाता है 
                        बताने कि जरूरत नहीं समझता 
हउराफेट= बार बार जाने कि क्रिया 






बुधवार, 25 नवंबर 2009

रेल गाड़ी के जनरल डब्बा

भाग - २
मैं सबले पहिली मोर ब्लॉग के अउ बिन ब्लॉग के घलो जम्मो संगवारी मन ला जयरामजी की कहत हौं.  भाग्ग-२ के संपादन बर अब्बड अगोरवायेवं तेखर खातिर माफ़ी चाहत हौं.  तौ टेशन ले पहुचेवं सम्मलेन के जघा माँ. सम्मलेन हा युवक युवती परिचय सम्मलेन रहिसे.  अइसन सम्मलेन माँ अपन अपन जोड़ा जोड़ी खोजे माँ सहूलियत रथे.  अरे बिहाव नई करैं त का होगे दाई ददा मन ला पता तो चल जाथे के काखर  टूरी अउ काखर टूरा बिहाव के लाइक हो गे हे.   देखत हौं लाव लश्कर के संग  अइसन गाड़ी(चमचमावत  कार) ले जेखर  मुड़ी माँ लाल लाईट लगे हे ओमा ले बढ़िया  जग जग ले उज्जर सफेद कपडा (पजामा अउ आधा बाँही के कुरता) पहिने एक झन  मनखे उतरिस. ओखर संग माँ लंगुरवा घलो रहिसे. अब बताये के जरूरत नई ये. तभो ले बता देथवं.  ओ मनखे रहिसे बेलासपुर के रहैया अउ आज जउन  अपन राज के खजाना मंत्री हे भाई अमर अग्रवाल. संग माँ ओखर बेलासपुर शहर के देख रेख करैया वैसे ओला शहर के प्रथम नागरिक माने जाथे महापौर जी भी रहिन अउ फेर मंत्री महोदय के चेला चपाटी. अब सम्मलेन के स्वागत दुआरी ले ओला परघावत हमर समाज के नगर अध्यक्ष अउ बड़े बड़े कार्यकर्ता मन मंच तक लेजिन.  ये दारी बने बेवस्था करे रहिन हमर समाज के करता धरता  मन. ओतकेच जुअर महू दुआरी माँ पहुँच गेवं. ऐसे लागिस महू तर गेंव. मोरो ऊपर फूल गिरिस तिलक घलो  लगाइन दुआरी माँ खड़े नोनी मन.  मंत्री जी  मेरन समय के कमी रहिसे.  कइसनो  कर के मंच माँ बैठारे गइस. हमर समाज के राष्ट्रीय स्तर के अउ प्रदेश स्तर के बड़े बड़े पदाधिकारी मन घलो मंच माँ मंत्री मन के संग माँ बइठिन.  मैं अपन एक जघा माँ कोंटिया गे रेहेंव. अब शुरू होईस मंच माँ बैठे मंत्रीजी समेत  जम्मो झन ला पुष्पहार से स्वागत करेके पारी. झन पूछौ भैया हो. मंत्री के स्वागत करैया कोरी खैरखा के  मात्रा माँ जी. करीब पौन घंटा ओही माँ बीत गे. फेर समाज के करता धरता के स्वागत करे माँ अलग. हड़बड़ी माँ अपन गोत्र ऋषि  कश्यप जी के पूजा ला घलो भुला गे रहिन. सुरता आये के बाद ओखर फोटो माँ दिया ला जलाइन.  कोनो समाज होए अपन समाज के एक ठन बने भवन के बेवस्था करथे. ओखर बर एडी चोटी एक करे ला परथे. एक तो अतेक दानवीर नई रहैं जउन  अकेल्लेच बनवा दै. फेर आज के तारीख माँ जमीन खोजे नई मिलत  हे. अउ मिलतो हे त भाव आगी लगे बरोबर हे. तौ अइसने बेरा माँ थोकिन कंत्री बन के नजूल उजूल के भुइंया मिल जाय कहिके मंत्री जी के सुरता करथन. वैसे तो जाने बात ए के कंत्री कोन आय. अतके माँ काम नई चलै.  बने भीड़ जोरे ल परथे त मंत्री जी पतियाथे के हाँ भविष्य माँ मोर बोट (वोट) के एक बहुत बड़े हिस्सा इंखर मेरन हवै.
तौ सबो झन (महिला सभा अउ तरुण सभा दुनो के बड़े बड़े पदाधिकारी मन ) अपन अपन गोठ बात रखिन. फेर मंत्री जी भी हां शुभ कामना के अपन दू शब्द कहिके ये परिचय सम्मलेन के महत्व  बताइन अउ भरोसा दइन के हमर समाज के भवन जउन अभी भूतल भर माँ बने हे ओला दुमंजला बनाये बर सहयोग मिलही सरकार ले.
मंत्री जी के बिदा होए के बाद समाज के सब बिहाव के लाइक नोनी बाबु के परिचय के सिलसिला शुरू होईस. संगे संग उनखर पंजीयन घलो. चाय नास्ता भोजन सबो के बेवस्था रहिसे. अरे हाँ एक ठन जउन बने बात अउ होईस ओ आये हमर समाज के हिंदी साहित्य के नामी शख्सियत स्वर्गीय प्यारेलाल जी गुप्त (जन्म १७ अगस्त १८९१ अउ निर्वाण १४ मार्च १९७६)  जेखर द्वारा  किताब लिखे गे हे; "प्राचीन छत्तीसगढ़(इतिहास ग्रन्थ) सुखी कुटुंब (उपन्यास) सरस्वती (मराठी से अनुदित) लबंगलता (उपन्यास) फ्रांस की राजक्रान्ति का इतिहास, ग्रीस का इतिहास, बिलासपुर वैभव (हिंदी गजेटियर) पुष्पहार (कहानी संग्रह) एक दिन (नाटक)" के स्मरण माँ जारी त्रैमासिक पत्रिका "पाठ"  के विमोचन माननीय मंत्री जी द्वारा करे गइस.  मैं खुद नई जानत रहेंव. ओ दिन जानेंव. बने लागिस. महू करीब सांझ के साढ़े पांच छै बजे तक रहेंव फेर अपन भेलाई बर ओही रेलगाड़ी माँ (आये के बेरा पसिंजर) माँ आयेवं अउ करीब ११ बजे रात के घर पहुचेंव.  लिखे बर तो अब्बड अकन ले चीज हे जी फेर जादा माँ आदमी बोरिया जाथे कहिके इहें समापन करत हौं. 
जय जोहार.     






मंगलवार, 17 नवंबर 2009

रेल गाड़ी के जनरल डब्बा

                                                             भाग - १
१४ तारीख के लिखी दे  रहेवं के मोला १५ के अपन बनिया समाज के प्रादेशिक सम्मलेन माँ जाए बर हे.  तौ एखरे बर १५ तारीख के बिहनिया बिहनिया करीब ६.४५ बजे  मैं बिलासपुर जाए बर घर ले निकलेवं. दक्षिण बिहार एक्सप्रेस हा तकरीबन ७.०५ के दुरुग ले छूट थे. अपन डुगडुगी (हीरो पुक ई जेड) माँ स्टेशन तक गेंव. गाड़ी ल स्टैंड माँ  रखेंव. एक्दमेच गाडी छूटे के टाइम हो गे रहिसे. गनीमत हे चार पांच ठन टिकट काउंटर खुल गे हवै. एक टिकट काउंटर माँ कम भीड़ भाड़ रहिसे  उंहचे टिकट लेंव अउ दउड़त  दउड़त पलेट फारम नंबर ४ माँ पहुचेंव.  गाड़ी खड़े रहय.  एकेच ठन ताराचंद (टी. सी.,टिकट चेक करैया) खड़े रहय. अउ ओखर मेर स्लीपर क्लास के टिकट बर एक्स्ट्रा पैसा देके टिकट लेवैया के भरमार. का पूछे बर हे . टी. सी. के चेहरा पसीना से तरबतर रहय. महू बिलासपुर बर स्लीपर के टिकट मागेवं त  कहिदिस लोकल टी. टी. आही त बनही. गाड़ी छूटे के टेम हो गे रहिसे गार्ड अपन भिसिल ला बजा दे रहिसे. अब  एक्सप्रेस गाड़ी माँ जेमा जनरल डब्बा गिने चुने रथे, बिना रिजर्वेशन जनरल बोगी माँ यात्रा करना  माने धक्का मुक्की ले हलकान होत जाव. सबो किसम के हलकानी, बैठे के जगा नहीं, चोरी अउ पॉकेट मारी के डर.....अउ कई किसम के खतरा जी. एखरे पाय के मैं रिजर्वेशन बोगी माँ इन्तिजाम करके जाथौं. पर का करौं  ओ दिन ताराचंद  घलो ला सुने के फुर्सत नहीं. गेंव पीछू के आधा ठन  बोगी माँ. असल माँ वो बोगी हा जनाना बोगी रहय फेर इहाँ कहाँ के नियम अउ कानून.  औरत मरद सबो घुसरे हें. झन पूछ ले दे के  महू घुसरेंव.  रेंगिस गाड़ी हा. गाड़ी के रेंगे ले जैसे गहुँ पिसवाय ला जाबे त आटा हा जब डब्बा माँ भराथे त डब्बा ला   हलाये के बाद ही  आटा एडजस्ट होथे. ओइसने गाड़ी के रेंगे ले हमन एडजस्ट होएन.  मैं सिंगल सीट वाले भाई ल अपन आधा डबलरोटी रखे बर निवेदन करके टिक गे रेहेंव.  अब पहुंचिस गाड़ी पावर हॉउस स्टेशन. का पूछे बर हे. एक तो आधा बोगी के डब्बा, पहिली च ले खच खच ले भरे रहय तभो ले सवारी घुसरते जाथे बेसुध होके. हमन सब जानथन के अइसन बेरा ल ताकत रथें अपन रोजी रोटी बर निकले बिचारा पाकिट मरैया  मन. तभो ले गाड़ी झन छूटे  कहिके लकर धकर चढ़ते जाथन. गाड़ी हा छूटे लागिस त ओ दिन तीन झन के बाट लग गे. एक झन के पर्स माँ पांच हजार रूपया अउ ए टी एम्  रहय बाकी दू झन के शायद चालीस पचास रुपिया भर. इंखर मन के २-३ के  ग्रुप रथे. एक झन ला देख डारिन. पीटीन घलो. फेर चोरी होए  समान हा तो पार्सल हो गे रहिसे दूसर ला, कहाँ ले मिलै. आखिर जेखर चोरी होए रहिसे ओ बिचारा हा भिलाई -३ माँ जी आर पी थाना माँ  रपट लिखवाए बर उतर गे.  अब इहाँ गाड़ी माँ खड़े पसेंजर मन बेंच माँ बैठे लोगन ले आघू के स्टेशन माँ जगा मिलही कहिके दीन हीन बरोबर देखत हे. पूछत घलो हे कहाँ उतरहू कहिके. जम्मो झन ले ओ मन ला "टा टा" मिलिस. ओ मन टाटानगर जवैया रहैं. एती डब्बा भीतर किसम किसम के बात. कहत हें,  "पुलिस ल बताये ले का फरक पड़ही, फिफ्टी फिफ्टी के सौदा रथे जी". "चोर चोर मौसेरे भाई"........ बाकी पाकिट मरैया मन एमा झूठ नई बोलय पुलिस मेरन ईमानदारी से बक देथें ...... किसिम किसिम के गोठ. महू गोठ बात के आनंद लेत पहुंचेवं बिलासपुर करीब १०.०० बजे. १०.१५ के सम्मलेन आयोजन स्थल माँ पहुँच गेंव. अब सम्मलेन के बात भाग-२ माँ लिखिहौं.
जय जोहार.  

रविवार, 15 नवंबर 2009

मृत्यु-भोज व दहेज़ प्रथा

बहुत हो गया अब। एक ही ढर्रे में चलते हुए। याने हँसी मजाक में कुछ कुछ पुडिया छोड़ते हुए. कुछ अन्य विषय पर भी चर्चा हो जाय। हम सब देख रहे हैं की आज समाज में मृत्यु भोज व दहेज़ प्रथा अभी भी कायम है। कायम ही नही मैं समझता हूँ ये दोनों कुरीतियाँ प्रतिष्ठा का विषय बन गयी हैं। बहुत लिखे जाते हैं इस पर। पर आप सभी से इस सम्बन्ध में राय जानने की अपेक्षा है। मैंने लोगों के बीच चर्चा करने पर पाया कि घर में किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने के  दस दिन  बाद की शुद्धि के पश्चात् तेरहवें दिन समाज के लोगों को, मित्रों को अपने घर बुलवाकर भोजन करा घर में शोक संतप्त वातावरण से उबरने के लिए तेरहवीं के रूप में संपन्न कराया जाता है। पर जैसा कि आज देखा गया है कि इस अवसर पर भी एक विवाह समारोह के समकक्ष भोज का आयोजन किया जाता है क्या  यह उचित है? अब दहेज़ प्रथा के बारे में तो पूछिए मतलड़कों की पढ़ाई और जॉब के आधार पर दहेज़ तौला जाता है . ये सब बातें धनाढ्य वर्ग के लिए सहज है किंतु क्या समाज के गरीब तबकों के लिए इन चीजों का थोपा जाना वाजिब है? पत्रिका केसर ज्योति के संपादक के सम्मान में एक कविता तैयार कर  दहेज़ मृत्युभोज  दोनों को इसमे शामिल करते हुए (भाषा को सुसज्जित कर पंक्तिबद्ध करने में तो अभी समय लगेगा) अपनी भावना को कुछ इस तरह प्रकाशित करवाया था:


केसरवानी समाज कि ये बगिया सुरभित हो केसर से सदा
जलती रहे प्रेम कि ज्योति दिलों में सभी के
हम हों कभी किसी से जुदा
कर रहा राज हम सब के दिलों में
वह केसरवानी राज है
केसर ज्योति कि रश्मि प्रभा से
दीखता संगठित सुगठित
केसरवानी समाज है

अतएव है निवेदन भी करूँ ताकीद सभी को
होने देंगे समाज का विघटन
ठान लें मन में अभी से
पूरा हो थोड़ा ही सही
कर अर्पण अपना तन मन धन
खा लें कसम रुकें पल भर
पियेंगे पिलायेंगे
फ़ेंक देंगे उन शीशियों को
भरा हो जिनमे ईर्ष्या द्वेष भाव का जहर
ढाने देंगे कभी
पुत्र वधू वधू के पिता पर
उस गरीब के घर, जहाँ से
निकली है अर्थी लेटा है चिता पर
दहेज़ व् मृतभोज रूपी कुरीतियों का कहर
महका दें सदाचार व् सद्भाव की सुरभि से
इस समाज को अपने वतन की इस सरजमी को











एक ठन जबरदस्त बीमारी

कोंजनी का बीमारी हा मोला जकड ले हे के छोडे के नाव नई लेथे। अपने च अपन माँ भुन्भुनावत रथौं। काहीं लेख ला पढ़हूँ चाहे किताब ला पढ़हूँ त बूजा हा सुरता माँ नई रहय। भुला जाथौं। कोनो भी विषय ला पढ़े के बाद ओखर बर तुरते विचार उपजथे। ओतके जुअर लिख ले त ठीक हे नई त आघू पाठ पीछू सपाट। कुल मिला के एला कथें भुलाए के बीमारी। अब का बतावं डागदर (अभी भी गवई माँ एही उच्चारन करथें उहाँ के मन, देखौ भाई डॉग डर याने कुकुर डेरा गे झन समझ लहू ) मेरन अपन इलाज बर गेवं। देख ताक के पूछिस कब ले हे ये बीमारी तोला। अब का बताओं ओतका जुवर सर्किट फ्यूज होगे दिमाग के उल्टा महि पूछे लगेवं डागडर ला "कउन बीमारी डागदर साहब। डागदर घलो भौंचक रहिगे। अब काय करबे ला इलाज होगे हे जी। अब बिहनिया ले जाय बर हे बेलासपुर। हमर समाज के राज्य स्तरीय सम्मलेन हावे। उठ पाहू के नही कहिके डेरावत हौं। अलारम हे न मोबाइल माँ। ओखरे आसरा माँ एला पोस्ट करे बर जागत हौं। अब जाथौं सोहौं। जम्मो झन ला सुग्घर रात अउ जय जोहार।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

नवा बैला के नवा सिंग चल रे बैला टींगे टिंग

मैं हा बने देवारी के दिन ये बलाग लिखे ला शुरू करे रेहेवं। ललित भाई अउ शरद भाई के आशीर्वाद अउ प्रेरणा मिले के बाद एकदम जोशिया गे रहेवं। तहां ले बस हर दिन बलाग लेखे के मन करै। ओइसने ताय ...."नवा बैला के नवा सिंग चल रे बैला टींगे टिंग"। अब सोचे बर परथे थोकिन। तौ गति हा धीरे हो गे हे लिखे के। करीब २-३ दिन ले सुभीता खोली माँ तो नही पर अइसने बइठे बइठे गुनत रहेवंभीतरे भीतर गुंगुवत रहिस मोर सोच हा के ये बलाग लिखे माँ का नफा हे का नकसानछत्तीसगढ़ी माँ तो नई सोच सकेवं। हिन्दी माँ सही लिखत हौं। बलाग के जोड़ तोड़ ला पहिली कर डरे हवं। (बला + आग)। कोनो गुसियाहू झन। हाँ आलोचना समालोचना कर सकत हौ ;
जब से आया है यह डब्बा (कंप्यूटर) नई नई चीजों के साथ ब्लॉग लेखन का अच्छा दौर चला है कवि साहित्यकार लेखक चिंतन करने वालों के लिए :- ब्लॉग लेखन एक कला है उन गृहिणियों के लिए जो अपने "उनको" पाते हैं इसमे व्यस्त सदा, उनके लिए बला है नव सीखिए, रखते हैं कुछ इसी तरह कर गुजरने की तमन्ना उनके ब्लॉग लेखन के लिए यह भला है और यदि इसे कोई तुलनात्मक दृष्टि से देखता हो और यदि कुछ हद नव सीखिए की भावना प्रकट हो रही हो उसकी चंद लकीरों से, प्रशंसनीय है हो रहा हो इसमे अग्रसर तो माहिर लोगों से कहूँगा आपका दिल क्यों जला है, उस नव सीखिए का लिखना आपको क्यों खला है
चाहिए इन्हे आपका आशीर्वाद अच्छे अच्छे सुझाव नव सिखियों को उनके मुकाम तक पहुचाव

बुधवार, 11 नवंबर 2009

मनखे मन के विचार हा कहाँ जादा उमड़ थे

वैसे तो दिन भर आदमी हा सोचते रहिथे। तभे यक्ष हा युधिष्ठिर ले प्रश्न करे रहिसे के हवा ले भी तेज काखर गति हवे। ओला जवाब मिले रहिसे "मन"। तौ भाई मन ताय दिन भर सोझ बाय नई रहे। फेर मैं समझथौं आनी बानी के सोच हा सुभीता ले एकेच ठउर माँ दिमाग ला कुरेदत रथे। वो ठउर आय रे भाई हो लोटा परेड करेके स्थान। अब जादा विस्तार ले समझाए के जरूरत नई ये मैं समझ थौं। बस एके बात के चिंता रथे के जैसे कचरा हा उपयोगी नई रहे तिसने दिमाग ले मन ले उपजे बने विचार ला कचरा मत बनाए जाय अउ वो सुभीता खोली से गुनत गुनत निकले के बाद तुरते अपन डायरी माँ लिख डारे जाय। अउ फेर ए मेरन लिख मारे जाय।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

भगवान आखिर तही हा जीत थस

खेल के मैदान होवे चाहे होवे राजनीतउतरे के बाद मैदान माँ हो जाथे तोर ले प्रीत अभी अभी होए रहिस इहाँ उपचुनाव१५ झन मनखे मन लगाये रहिन अपन दाँव लेकिन देवत रहिन दुए झन अपन अपन मेछा माँ ताव एक झन हा कहत हे हे ईश्वर जागले दे के चांस मिले हे जगा दे मोर भाग दूसर हा कहत हे मैं तो अतके जानथौं। तय हस निराकार येला मैं मानथौं उतरे हौं मैदान माँ तबले रेगुलर करथौं मैं भजन तोरलगाबे नैया पार, मत देबे तय नरवा माँ मोला चिभोरवो तारीख रहै सात होगे इंखर किस्मत हा इ. व्ही. एम्. माँ बंद दिन ले शुरू होगे इंखर मन माँ अंतर्द्वंद। अगोरत अगोरत होगे दस तारीख के बिहन्हा। नेता जनता दुनो पहुचगे पालीटेक्निक कालेज जाने चुनाव रिजल्ट, हलावत अपन कनिहा। निराकार के जीत होईस हार गे साकार। अरे दुनो माँ त तही हस तोर लीला हे अपरम्पार। अउ जम्मो छत्तीसगढिया मन ला मोर जय जोहार।